Friday, July 12, 2013

बिखरी उसकी जुल्फें बतलाता ही क्यूँ है


**
*

बिखरी उसकी जुल्फें बतलाता ही क्यूँ है,
फिर मुझ से शिकारी कतराता ही क्यूँ है |

गर महफ़िल में खुद परवाना बन जले वो,
वही शम्मा मुझको दिखलाता ही क्यूँ है |

यूँ ख्वाबों में उसके ओ छत पर संवरना,
फिर दिल में मेरे लौ जलाता ही क्यूँ है |

लूटा उसका मौसम अब पत्तों सा झड़ना,
मगर मुझको हरसूं जताता ही क्यूँ है |

वो साकी बना संग हुस्न सी है बोतल,
खुदा मुझको जाम दिखाता ही क्यूँ है |

बगावत पे उसकी मुझी पे ही शक था,
मगर मुझको दुश्मन बनाता ही क्यूँ है |

बेताबियों में मेरा हद से गुजरना ,
वो पिछले पहर फिर बुलाता ही क्यूँ है |

मुनासिब नहीं शक शराफत पे करना,
मुझे खुद फिर जाम पिलाता ही क्यूँ है |

___________हर्ष महाजन

No comments:

Post a Comment