Tuesday, May 12, 2015

इन्सान की फितरत क्या कहिये, मुर्दों में खज़ाना ढूंढ लिया

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इन्सान की फितरत क्या कहिये, मुर्दों में खज़ाना ढूँढ लिया,
कहाँ बेचें जिस्म के अंगों को, उसका भी ठिकाना ढूँढ लिया |

छोड़ें न मरगट में वो कफ़न, करते न हर तन को वो दफ़न ,
इंसान की कीमत कुछ भी नहीं, अपनों ने निशाना ढूँढ लिया |

नौकर हो  चाहे व्यापारी, चाहे हो बाबू सरकारी,
दौलत के भूखे-नंगों ने,  उनका भी निशाना ढूँढ लिया |

किश्तों में जब लोग बिकने लगे, अपनों के संग वो दिखने लगे,
अहसास मरे यूँ अपनों के,  उनको फुसलाना ढूँढ लिया |

जब पल-पल यूँ ही मरने लगे , ऐसे मंज़र जब चलनें लगे,
तो उम्र घटी शैतानों की , जब 'हर्ष' दीवाना ढूँढ लिया |


हर्ष महाजन

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