Wednesday, August 31, 2016

लोग जाने शहर में किस तरह जी रहे हैं

एक मुक्तक

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लोग जाने शहर में....किस तरह जी रहे हैं,
इन हवाओं में शामिल ज़हर तक पी रहे हैं |
गाँव जब से उठे हैं....शहर की चाल लेकर,
तब से चादर ग़मों की....शहरिये सी रहे हैं |
हर्ष महाजन 'हर्ष'

Friday, August 19, 2016

भरे काँटों में खिलते फूलों को भी तोड़ना सीखा


भरे काँटों में खिलते फूलों को भी तोड़ना सीखा,
है भैया का ये रिश्ता बहिनों ने तो जोड़ना सीखा |

हिफाज़त ज़िन्दगी भर की लिया करते थे कसमें वो,
मगर कलयुग में भैया ने ये रिश्ता तोडना सीखा |

मुहब्बत से वो ज़ख्मों पर जो मरहम वो लगाती थी,
मगर नोटों से भैया ने इसे अब मोड़ना सीखा |

कभी माँ की मुहब्बत बहिन की राखी बताती थी,
न जाने क्या हुआ भैया ने रिश्ते छोड़ना सीखा |

मलामत सह के भी रिश्तों को बांधे रेशमी डोरी,
ज़हर पीकर भी रिश्तों में शहद को घोलना सीखा |


हर्ष महाजन

बहरे हज़ज़ मुसमन सालिम
1222-1222-1222-1222

Wednesday, August 10, 2016

यूँ किस्से अपने लिक्खे खूब उसने खुद सफीनों पर

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यूँ किस्से अपने लिक्खे खूब उसने खुद सफीनों पर,
मेरी इच्छा है वो गजलों में सब तब्दील हो जाएँ |

हर्ष महाजन

1222-1222-1222-1222